यह जीवन की डोर किसने बांधी है,
सांसो को पिरो कर बनाई इक माला .
चलते जाते है हम यूँ ही आगे आगे,
चाहे हो कहीं अँधेरा या उजाला।
क्या पाते हैं उजाले से , क्या खो देते हैं अन्देरे में?
बस अंको के हिसाब से रहते हैं एक घेरे में।
एक दिन , दो साल या पन्द्रेह बरस,
कोई पल पाते हैं क्या इसमे सरस?
फिरते है किन इच्छायों के लिए ,
जिन्होंने केवल दी एक मृगत्रिष्णा.
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